आरक्षण बनाम आरक्षण - मुसाफिर बैठा

वर्णश्रेष्ठताजनक सामाजिक आरक्षण
भकोस रहे कुछ सज्जन
चाणक्य प्रणीत साम-दाम-दण्ड-भेद में से
माकूल पेंच भिड़ाकर
बस इसी योग्यता के बूते
अपने लिए और अपनी परवर्ती पीढ़ियों के लिए
कई सरकारी पद सहज ही हथियाते रहे

और यकीनन
इतने कुछ के बावजूद
वे ताजिंदगी आरक्षण-मन से रहे कोसों दूर
जीभर संवैधानिक आरक्षणभोगियों और
उसके प्रणेता बाबा साहेब अंबेडकर को
पानी पी पीकर कोसते गरियाते रहे।
परशुराम जयंती 2004

फिर भी आधुनिक - मुसाफिर बैठा

आप अपने घरों में
छत्तीस कोटि मुण्डे मुण्डे मतिभिर्न्ना
आपस में छत्तीसी रिश्ता बरतने वाले
देव अराधना में आकंठ डूबे-तैरें
स्वार्थ कर्म में पड़कर
स्वकर्म-धर्म छोड़
उनके जूते चाटें तलवे सहलाएं
आप फिर भी आधुनक

कथित रामराज्य की शंबूक प्रताड़ना
औ कृष्ण काल के एकलव्य प्रति
द्रोणछल को बखूबी
अपनी सामंती मानसिकता में
आप अब भी सहलाएं पुचकारें
दलितों के प्रति वही पूर्वग्रही पुरा सोच सम्हालें
आप फिर भी आधुनिक

आप लोकतंत्री न्यायी होकर भी भंवरी-न्याय सुनाए
औ मानवता की परिभाषा भूल जाएं
किसी अवयस्क ब्राह्मण पुत्र को देव मानकर
उसकी चरण-बंदगी पर उतर जाएं
आप जज की कुर्सी पर बिराजकर भी
योर आनर मी लार्ड जैसे
रैयतग्राही एवं सामंती सुख संबोधन को
इस आधुनिक वैज्ञानिक समय में भी
बेहिचक निगलें पचाएं
आप फिर भी आधुनक

आप आदमी आदमी में भेद रचे
रचे भेद को तादम नित गहरा बनाये
इस भेद रोटी को सेंक सेंक कर
सामाजिक वर्चस्व का समूचा श्रीफल
बिना डकारे ही खा जाएं
खा खाकर बेशर्मी से फूलें अघाएं
और दलितों को हक-अधिकार से
वंचित रख जाएं
आप फिर भी आधुनिक

आप दिल-दिमाग में रख छत्तीस का रिश्ता
पशु-पक्षी जड़-जाहिल को भी देव मान अराधे
आप श्वानों को भी अपनी गोद में थामें
चूमें-चाटेंं उन पर बेहिसाब प्यार लुटाएं
पर दलितों पर झज्जर-दुलीना बरपाने की
हद नीचता दिखलाने से बाज न आए
आप फिर भी आधुनिक

आप दुनिया का हर आधुनिक ठाट अपनाना चाहें
पर स्मृति-रामायण की कूप मानसिकता
और बाट न हरगिज छोड़ें
तन पर चढ़ जाएं लाख लिबास आधुनिक
मन को आपके
एक कतरा भी आधुनिकता न सुहाए
मनु-रक्त ही दौड़े आपकी रग-रग में रह रह
आप फिर भी आधुनिक

आप आधुनिकता को
जाने-अनजाने समझना न चाहें
आधुनिकता की राह में
लाख रोड़े अटकाएं
आधुनिक सोच को दिखाएं खूब अंगूठा
आपके अमानुष सोच के बजबजाते कूड़े-कचरे से
चाहे आए आधुनिकता की नकली खुशबू
आप फिर भी आधुनिक

ईश्वर के रहते भी - मुसाफिर बैठा

ईश्वर के रहते भी
क्यों मंदिर आती जाती
किसी श्रद्धासिक्त महिला की
राह बीच लुट जाती है इज्जत
यहां तक कि जब-तब
मंदिर के प्रांगण के भीतर भी

क्यों कुचलकर हो जाती है
भक्तों की असमय दर्दनाक मौत अंग-भंग
बदहवास भगदड़ की जद में आकर
मंदिर की भगवत रक्षित देहरी पर ही

ईश्वर के रहते भी
क्यों जनम जनम का अपराधी
और कुकर्मी भी बना जाता है
ईश्वर के नाम
कोई भव्य दिव्य सार्वजनिक पूजनगृह
और मनचाहा ईश्वर को
बरजोरी बिठा आता है वहां
अपनी मनमर्जी
और उसके कुकर्मों-चाटुकर्मांे का भरा घड़ा भी
इसमें कतई नहीं आता आड़े

ईश्वर के रहते भी
क्यों चमरटोली का धर्मभीरू इसबरबा चमार
बामनटोली के भव्य मंदिर को
पास से निरखने तक की अपने मन की साध
पूरी करने की नहीं जुटा पाता है हिम्मत
और अतृप्त ही रह जाती है
उसकी यह साधारण चाह
असाधारण अलभ्य बनकर

ईश्वर के रहते भी
क्यों शैतान को पत्थर मारते मची भगदड़ में
मक्का में बार बार कई अल्लाह के बंदे
हो जाते है अल्लाह को प्यारे
और उस शैतान का बाल भी बांका नहीं होता
और चढ़ा रह जाता है शैतानी खंभे पर वह
ईश्वर और उसके भक्तों के मुंह चिढ़ाता

ईश्वर के रहते भी
क्यों सब कुछ तो बन जाता है इंसान
पर इंसान बने रहने के लिए उसे
पड़ता है नाकों चने चबाना ।

2004

ईश्वर बनाम मनुष्यता - मुसाफिर बैठा

मनुष्य में छुपी अमानवता ने ही
ईश्वर का ईजाद किया है शायद

बुद्ध महावीर जैसे अकुंठ मनुष्यता के धनी
महापुरुषों के अनन्य अनुपमेय कर्मों को
ईश्वरीय का नाम दे ईश्वर के नाम पर
महिमामंडित कर वस्तुतः ईश-रचयिताओं ने इन्हें
ओछा अनअनुकरणीय बनाने की ही
की है सफल कोशिश और
सामान्यजन की समझ को जांचा परखा है
और अपनी कसौटी पर पाया है
कि दुनिया अब भी उतना वैज्ञानिक नहीं
कि ईश्वर से लड़ सके, न डरकर रहे
कि उसे जड़ कर सके
कि उसके बिना ही रह सके

ईश्वर को जो लोग कब्जा रहे होते हैं
वे दरअसल उसकी सत्ता की इयत्ता को
बखूबी जान-समझ रहे होते हैं
ईश्वरीय सत्ता की ओट में
जनसत्ता के घोटक की लगाम
मजबूती से थाम रहे होते हैं

जो ईश्वर
उनकी सत्ता और आरामगाह का
सुगम सुलभ मार्ग है
वही
नाना अनुष्ठानों-विधानों में
उलझ-अंतर्वलित हो
औरों की खातिर
अलभ्य अलख अबूझ रह जाता है

मानवता की रक्षा में हमें
बुद्धों महावीरों और राम कृष्ण जैसे
इतर देव मान्य जनों को भी
उनकी मनुष्यता को लौटाकर और
ईश्वरीय दिव्य अलख
भाव-भूमि से उतारकर
फिर से मनुष्यता की यथार्थ जमीं पर
समग्रता में ले आना होगा

कदाचित
ईश्वर के ध्वंस की बिना पर ही
अक्षत ऊर्जस्वित मनुष्यता की निर्मिति संभव है !
2003

भक्त अनुकूलन - मुसाफिर बैठा

कम से कम झज्जर-दुलीना के
कुक्कर लंगूर-बंदर चूहे औ छुछूंदर
अब भगवद्भक्तों से
अपनी उपेक्षा का हिसाब मागेंगे

कथित देव महादेव, श्रीराम और गणेश के
अनथक सहयोगियों सवारियों के ये वंशज
श्रद्धालुओं से गौमाता की तरह का
वाजिब हक मान चाहेंगे

दलितों से ऊपर के दर्जे से अन्यून का
संघी सर्टिफिकेट लेकर
वे क्यों न भक्तों के बीच जाना चाहेंगे

और संक्रामक गति से बढ़ती
भक्त जनसंख्या को
अनुकूलित करने हेतु
उन्हें यथेष्ट पूजास्पद विकल्प
मुहैया करायेंगे !

हनुमान जयंती 2005

चमत्कार - मुसाफिर बैठा

किंवदंतियों में लड्डू जीमने वाले
पशुमानव खिचड़ी देहधारी देव गणेश ने
विज्ञान की इस इक्कीसवीं सदी की
आमद से ठीक पूर्व
एक खास दिन छक कर दूध पिया
देश के भीतर और बाहर भी सर्वत्रा

पर यकीनन घोर चमत्कार
वे बाल्टी की बाल्टी पी गए दूध
मूते छटांक भर भी नहीं !

गणेश चतुर्थी 2001

सुनो सरस्वती - मुसाफिर बैठा

हे बुद्धि वारिधि वीणापाणि कही जानेवाली देवी
खल ब्राह्मणों के छल बल के आगे
क्यों तुम्हारे बुद्धि विवेक भी जाते हैं मारे
तुम्हारी वीणा क्यों नहीं झंकृत कर पाती
उन छलबुद्धि दिलों को
क्यों चुक जाती है तुम्हारी मनीषा
छलियों की भेदबुद्धि वेदबुद्धि के आगे

सुनो सरस्वती सुनो
कान खोलकर सुनो तुम
तुम्हारी जड़ मूर्ति जिसने गढ़ी
उसी को तुम्हारी विकलांग विद्या मुबारक
हमने तो सीख लिया है
खुद अपने बूते विद्या गढ़ना
विद्या के बल पर बनना संवरना

ललकार है तुझे
और दुत्कार भी
कि अगर बाकी है सचमुच की
कोई विद्यादायिनी शक्ति तुममें
जो अपना न सके हम
बिना तुम्हारे सामने सीस नवाये तुम्हें अराधे
तो बतलाओ
बतलाओ अभी तुरंत

तुम अपनी भेदबुद्धि भेदक ज्ञान
उन स्वार्थीजनों में ही बांटो फैलाओ
जिन्होंने तुम्हारे कंधें पर बंदूक रखकर
जहरीले कसैले दैवी हरफ असंख्य
गढ़ रखे हैं विरुद्ध हमारे
और खिलाफ जिनके एक शब्द भी
तुम कथित विद्या देवी भी नहीं बोलती

हमारे उर में तो बस अब
अप्प दीपो भव का
अक्षय बुद्धमत बसा है
जिसके आगे तेरी अबूझ विद्याओं की आंच
अत्यल्प पासंग भर है

हे कथित विवेकदायिनी देवी
कुछ शर्म आप करो तो
एक बात करो
मानवता हत-आहत कर सकने की अपनी
सड़ी गली मरी विद्या विवेक का
करो तर्पण पिण्डदान करो

और एक गुजारिश भी है तुमसे कि
विद्या जैसे अमोल धन का
मत शास्रोक्त बंदरबांट करो ।

बसंत पंचमी 2006

सुनो द्रोणाचार्य - मुसाफिर बैठा

सुनो द्रोणाचार्य
सुनो

अब लदने को हैं
दिन तुम्हारे
छल के
बल के
छल बल के

लंगड़ा ही सही
लोकतंत्रा आ गया है अब
जिसमें एकलव्यों के लिए भी
पर्याप्त ‘स्पेस’ होगा
मिल सकेगा अब जैसा को तैसा
अंगूठा के बदले अंगूठा
और
हनुमानकूद लगाना लगवाना अर्जुनों का
न कदापि अब आसान होगा

तब के दैव राज में
पाखंडी लंगड़ा था न्याय तुम्हारा
जो बेशक तुम्हारे राग दरबारी से उपजा होगा
था छल स्वार्थ सना तुम्हरा गुरु धर्म
पर अब गया लद दिनदहाड़े हकमारी का
वो पुरा ख्याल वो पुरा जमाना

अब के लोकतंत्रा में तर्कयुग में
उघड़ रहा है तेरा
छलत्कारों हत्कर्मों हरमजदगियों का
वो कच्चा चिट्ठा
जो साफ शफ्फाफ बेदाग बनकर
अब तक अक्षुण्ण खड़ा था
तुम्हारे द्वारा सताए गयों के
अधिकार अचेतन होने की बावत

डरो चेतो या कुछ करो द्रोण
कि बाबा साहेब के सूत्रा संदेश-
पढ़ो संगठित बनो संघर्ष करो
की अधिकार पट्टी पढ़ गुन कर
तुम्हारे सामने
इनक्लाबी प्रत्याक्रमण युयुत्सु
भीमकाय जत्था खड़ा है ।

2007

बुद्ध फिर मुस्कुराए - मुसाफिर बैठा

अपने जीवनकाल में किसी सामाजिक प्रसंग पर
कभी मुस्कुराए भी थे बुद्ध
यह आमद प्रश्न इतिहास सच के करीब कम
कल्पना सृजित ज्यादा है

यदि कभी मुस्कुराए होंगे बुद्ध
तो इस बात पर भी जरूर
कि धन वैभव राग विलास जैसा भंगुर सुख भी
हमारी जरा मृत्यु की अनिवार गति को
नहीं सकता लांघ
और इसी निकष पर पहुंच
इस महामानव ने किया होगा
इतिहास प्रसिद्ध महाभिनिष्क्रमण

बुद्ध फिर मुस्कुराए-
अव्वल तो यह कथन ही मिथ्या लगता है
बुद्ध की हेठी करता दिखता है यह
अबके समय में
मनुष्य जन्म की बारंबारता को
इंगित करता है यह कथन
जबकि एक ही नश्वर जीवन के
यकीनी थे बुद्ध
अहिंसक अईश्वरीय जीवन के
पुरजोर हिमायती थे वे

अगर होते तो
अपने विचारों के प्रति
जग के नकार भाव पर ही
सबसे पहले मुस्कुराते बुद्ध

पोखरन के परमाणु विस्फोट पर
बुद्ध के मुस्कुराने का
बिम्ब गढ़नेवालों की सयानी राजबुद्धि पर भी
कम नहीं मुस्कुराते बुद्ध

बामियान की बुद्धमूर्ति श्ाृंखला को
हत आहत करनेवाली शासकबुद्धि की
शुतुरमुर्ग भयातुरता पर भी जरूर
मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते बुद्ध

और तो और
होते अगर अभी बुद्ध
तो देखने वाली बात यह होती
कि अपने नाम पर पलने वाले
तमाम अबौद्ध विचार धर्म को देख ही कदाचित
सबसे अधिक मुस्कुरा रहे होते बुद्ध ।


बुद्धजयंती 2008

मैं उनके मंदिर गया था - मुसाफिर बैठा

उस दिन
मैं उनके मंदिर गया था
चाहा था अपने ईश की पूजा-अभ्यर्थना करना
मंदिर द्वार पर ही मुझे धो दिया उन्होंने
लत्तम-जुत्तम कर अधमरा कर दिया

मेरी धुलाई का प्रसंग स्पष्ट किया-
चूहड़े चमार कहीं के
गंदे नाली के कीड़े
गांधी ने हरिजन क्या कह दिया
दौड़े चले आये हमारी देवी मॉं के यहॉं
अपनी गंदगी फैलाने
किसी के कह देने भर से
लगे हमारी तरह के हरिजन बनने का स्वप्न देखने

मुझे क्या था मालूम
कि हरि पर तो कुछेक प्रभुजनों का ही अधिकार है
और इस देवी मंदिर को
ऐसे ही प्रभुजनों ने
अपनी खातिर सुरक्षित कर कब्जा रखा था

मेरे अंतर्मन में ईश्वर के बौनेपन का साक्षात्कार किया
और आप-ही-आप सवाल किया
फ्लैश बैक में कुछ टोहने टटोलने लगा
विद्या की देवी सरस्वती
धन की लक्ष्मी
हमारे तैंतीस करोड़ देव-देवियों का हुजूम
अब सौ करोड़ भारतीयों में एक देव के हिस्से
अमूमन तीन आदमी का सुरक्षा दायित्व
बल्कि विधर्मियों, ईश-उदासीनों की संख्या
को घटाकर और भी कम लोगों का
फिर भी हम रहे सदियों
विद्या वंचित अकिंचन धनहीन
क्योंकर पाता कोई हमारा
हक, हिस्सा और स्वत्व ले छीन

क्या यह एक सवाल हो सकता है
कि औरों से मुंह फेरे जो ईश्वर
समाज-सत्ता संचालकों के घर जा बैठता है
ईश्वर उनका ही परिकल्पित-मनोकामित
उनके ही गुणसूत्रों का धारक
कोई अनगढ़ अन्यमनस्क पैदावार तो नहीं

हमीं में से जो लोग
ईश्वर की सत्ता शक्ति लौट आने के इंतजार में हैं
इंतजार की अनगिन घड़िया गिनते रहें
फिर जाएं मंदिर
पाते रहें प्रसाद ईश-प्रीत के
मैं तो अब महसूस गया हूं
कि दरहकीकत यह कमबख्त ईश्वरीय सत्ता ही
प्रभुवर्ग की प्रभुता का सबब है
और हमारी अशक्यता, हमारे पराभव का कारक भी
अब हमें किसी गैरदुनियावी, अलौकिक
शक्ति सहायता की दरकार नहीं
किसी का इंतजार नहीं करना
अपने बाजुओं का ही अहरह भरोसा है

सदियों का संताप - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

दोस्‍तों,
बिता दिए हमने हजारों वर्ष
इस इंतजार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
जहरीले पंजों समेत.
फिर हम सब
एक जगह खडे होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्‍त शिराओं में
हजारों परमाणु क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा!

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर
ठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टांग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताजे लहू से महकती सडकों पर
नंगे पांव दौडते
सख्‍त चेहरों वाले सांवले बच्‍चे
देख सकें
कर सकें प्‍यार
दुश्‍मनों के बच्‍चों में
अतीत की गहनतम पीडा को भूलकर

हमने अपनी उंगलियों के किनारों पर
दुःस्‍वप्‍न की आंच को
असंख्‍य बार सहा है
ताजा चुभी फांस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पांव में
सुना है
दहाडती आवाजों को
किसी चीख की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्‍क तक का सफर तय करने में
थक कर सो गई है.

दोस्‍तों,
इस चीख को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है
!

(जनवरी, 1989)

शंबूक का कटा सिर - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छांव में बैठकर
घडी भर सुस्‍ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्‍कारें गूंजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
जमीन पर पडा हो शंबूक का कटा सिर.
मैं, उठकर भागना चाहता हूं
शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है
चीख-चीखकर कहता है-
युगों-युगों से पेड पर लटका हूं
बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है.

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह
तडप उठते हैं-
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी
यहां तो हर रोज मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;
जिनकी सिसकियां घुटकर रह जाती है
अंधेरे की काली पर्तों में

यहां गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्‍य है
फिर भी सब खामोश है
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्‍त से सनी उंगलियों की महिमा मंडित.

शंबूक, तुम्‍हारा रक्‍त जमीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्‍वालामुखी बनकर!

(सितंबर 1988), 'सदियों का संताप' संकलन से.

युग चेतना - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

मैंने दुःख झेले
सहे कष्‍ट पीढी-दर-पीढी इतने
फिर भी देख नहीं पाये तुम
मेरे उत्‍पीडन को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको.

इतिहास यहां नकली है
मर्यादाएं सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍त रंजित उंगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जडी अंगूठियां.

कितने सवाल खडे हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीडित हूं
अंत नहीं मेरी पीडा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाये
मेरी संपत्ति पर.

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूं
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूं
प्रताडित हूं.

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जन हूं
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको.

(अक्‍टूबर 1988), 'सदियों का संताप' संकलन से.

कविता और फसल - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फसल
कोरे कागजों पर.

फसल हो या कविता
पसीने की पहचान है दोनों ही.

बिना पसीने की फसल
या कविता
बेमानी है
आदमी के विरूद्ध
आदमी का षडयंत्र-
अंधे गहरे समंदर सरीखा
जिसकी तलहटी में
असंख्‍य हाथ
नाखूनों को तेज कर रहे हैं
पोंछ रहे हैं उंगलियों पर लगे
ताजा रक्‍त के धब्‍बे.

धब्‍बेः जिनका स्‍वर नहीं पहुंचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुंच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्‍य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्‍ल में.

(सितंबर, 1986)
'सदियों का संताप' संकलन से

चोट - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

पथरीली चट्टान पर
हथौडे की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है
.
आग में तपकर
लोहा नर्म पड जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौडे की चोट में.

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता.

(फरवरी, 1985) 'सदियों का संताप' संकलन से

ठाकुर का कुंआ -ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का.

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का.

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की.

कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या?
गांव?
शहर?
देश?

(नवंबर, 1981)
('सदियों का संताप' संकलन से)
 
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