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सदियों का संताप - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

दोस्‍तों,
बिता दिए हमने हजारों वर्ष
इस इंतजार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
जहरीले पंजों समेत.
फिर हम सब
एक जगह खडे होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्‍त शिराओं में
हजारों परमाणु क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा!

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर
ठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टांग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताजे लहू से महकती सडकों पर
नंगे पांव दौडते
सख्‍त चेहरों वाले सांवले बच्‍चे
देख सकें
कर सकें प्‍यार
दुश्‍मनों के बच्‍चों में
अतीत की गहनतम पीडा को भूलकर

हमने अपनी उंगलियों के किनारों पर
दुःस्‍वप्‍न की आंच को
असंख्‍य बार सहा है
ताजा चुभी फांस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पांव में
सुना है
दहाडती आवाजों को
किसी चीख की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्‍क तक का सफर तय करने में
थक कर सो गई है.

दोस्‍तों,
इस चीख को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है
!

(जनवरी, 1989)

शंबूक का कटा सिर - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छांव में बैठकर
घडी भर सुस्‍ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्‍कारें गूंजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
जमीन पर पडा हो शंबूक का कटा सिर.
मैं, उठकर भागना चाहता हूं
शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है
चीख-चीखकर कहता है-
युगों-युगों से पेड पर लटका हूं
बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है.

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह
तडप उठते हैं-
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी
यहां तो हर रोज मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;
जिनकी सिसकियां घुटकर रह जाती है
अंधेरे की काली पर्तों में

यहां गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्‍य है
फिर भी सब खामोश है
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्‍त से सनी उंगलियों की महिमा मंडित.

शंबूक, तुम्‍हारा रक्‍त जमीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्‍वालामुखी बनकर!

(सितंबर 1988), 'सदियों का संताप' संकलन से.

युग चेतना - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

मैंने दुःख झेले
सहे कष्‍ट पीढी-दर-पीढी इतने
फिर भी देख नहीं पाये तुम
मेरे उत्‍पीडन को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको.

इतिहास यहां नकली है
मर्यादाएं सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍त रंजित उंगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जडी अंगूठियां.

कितने सवाल खडे हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीडित हूं
अंत नहीं मेरी पीडा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाये
मेरी संपत्ति पर.

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूं
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूं
प्रताडित हूं.

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जन हूं
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको.

(अक्‍टूबर 1988), 'सदियों का संताप' संकलन से.

कविता और फसल - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फसल
कोरे कागजों पर.

फसल हो या कविता
पसीने की पहचान है दोनों ही.

बिना पसीने की फसल
या कविता
बेमानी है
आदमी के विरूद्ध
आदमी का षडयंत्र-
अंधे गहरे समंदर सरीखा
जिसकी तलहटी में
असंख्‍य हाथ
नाखूनों को तेज कर रहे हैं
पोंछ रहे हैं उंगलियों पर लगे
ताजा रक्‍त के धब्‍बे.

धब्‍बेः जिनका स्‍वर नहीं पहुंचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुंच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्‍य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्‍ल में.

(सितंबर, 1986)
'सदियों का संताप' संकलन से

चोट - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

पथरीली चट्टान पर
हथौडे की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है
.
आग में तपकर
लोहा नर्म पड जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौडे की चोट में.

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता.

(फरवरी, 1985) 'सदियों का संताप' संकलन से

ठाकुर का कुंआ -ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का.

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का.

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की.

कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या?
गांव?
शहर?
देश?

(नवंबर, 1981)
('सदियों का संताप' संकलन से)
 
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