चोट - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

पथरीली चट्टान पर
हथौडे की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है
.
आग में तपकर
लोहा नर्म पड जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौडे की चोट में.

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता.

(फरवरी, 1985) 'सदियों का संताप' संकलन से

2 Responses to “चोट - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि”

मुसाफिर बैठा ने कहा…

एक तुम (........?) हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता.

...और यह हमारे लिए चैलेन्ज है कि 'तुम' पर असर पुरअसर हो!

PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड ने कहा…

चुपके से चोट करती करती कविताएं...

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