सुनो सरस्वती - मुसाफिर बैठा

हे बुद्धि वारिधि वीणापाणि कही जानेवाली देवी
खल ब्राह्मणों के छल बल के आगे
क्यों तुम्हारे बुद्धि विवेक भी जाते हैं मारे
तुम्हारी वीणा क्यों नहीं झंकृत कर पाती
उन छलबुद्धि दिलों को
क्यों चुक जाती है तुम्हारी मनीषा
छलियों की भेदबुद्धि वेदबुद्धि के आगे

सुनो सरस्वती सुनो
कान खोलकर सुनो तुम
तुम्हारी जड़ मूर्ति जिसने गढ़ी
उसी को तुम्हारी विकलांग विद्या मुबारक
हमने तो सीख लिया है
खुद अपने बूते विद्या गढ़ना
विद्या के बल पर बनना संवरना

ललकार है तुझे
और दुत्कार भी
कि अगर बाकी है सचमुच की
कोई विद्यादायिनी शक्ति तुममें
जो अपना न सके हम
बिना तुम्हारे सामने सीस नवाये तुम्हें अराधे
तो बतलाओ
बतलाओ अभी तुरंत

तुम अपनी भेदबुद्धि भेदक ज्ञान
उन स्वार्थीजनों में ही बांटो फैलाओ
जिन्होंने तुम्हारे कंधें पर बंदूक रखकर
जहरीले कसैले दैवी हरफ असंख्य
गढ़ रखे हैं विरुद्ध हमारे
और खिलाफ जिनके एक शब्द भी
तुम कथित विद्या देवी भी नहीं बोलती

हमारे उर में तो बस अब
अप्प दीपो भव का
अक्षय बुद्धमत बसा है
जिसके आगे तेरी अबूझ विद्याओं की आंच
अत्यल्प पासंग भर है

हे कथित विवेकदायिनी देवी
कुछ शर्म आप करो तो
एक बात करो
मानवता हत-आहत कर सकने की अपनी
सड़ी गली मरी विद्या विवेक का
करो तर्पण पिण्डदान करो

और एक गुजारिश भी है तुमसे कि
विद्या जैसे अमोल धन का
मत शास्रोक्त बंदरबांट करो ।

बसंत पंचमी 2006

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