कविता और फसल - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फसल
कोरे कागजों पर.

फसल हो या कविता
पसीने की पहचान है दोनों ही.

बिना पसीने की फसल
या कविता
बेमानी है
आदमी के विरूद्ध
आदमी का षडयंत्र-
अंधे गहरे समंदर सरीखा
जिसकी तलहटी में
असंख्‍य हाथ
नाखूनों को तेज कर रहे हैं
पोंछ रहे हैं उंगलियों पर लगे
ताजा रक्‍त के धब्‍बे.

धब्‍बेः जिनका स्‍वर नहीं पहुंचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुंच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्‍य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्‍ल में.

(सितंबर, 1986)
'सदियों का संताप' संकलन से

2 Responses to “कविता और फसल - ओमप्रकाश वाल्‍मीकि”

मुसाफिर बैठा ने कहा…

हिंदी दलित साहित्य के सबसे बड़े कवि की एक बड़ी कविता! आभार ब्लॉग पर 'शेयर' करने के लिए!

धब्‍बे - जिनका स्‍वर नहीं पहुंचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुंच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्‍य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फसल की शक्‍ल में.

PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड ने कहा…

कागजों पर फसल और पसीने से कविता से इतर श्रमजीविता के महत्त्व की तमीज सीखाती कविता।

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