मैंने दुःख झेले
सहे कष्ट पीढी-दर-पीढी इतने
फिर भी देख नहीं पाये तुम
मेरे उत्पीडन को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको.
इतिहास यहां नकली है
मर्यादाएं सब झूठी
हत्यारों की रक्त रंजित उंगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जडी अंगूठियां.
कितने सवाल खडे हैं
कितनों के दोगे तुम उत्तर
मैं शोषित, पीडित हूं
अंत नहीं मेरी पीडा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाये
मेरी संपत्ति पर.
मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूं
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्कासित हूं
प्रताडित हूं.
इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जन हूं
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको.
(अक्टूबर 1988), 'सदियों का संताप' संकलन से.
युग चेतना - ओमप्रकाश वाल्मीकि
1:56 am
गंगा सहाय मीणा
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1 Response to “युग चेतना - ओमप्रकाश वाल्मीकि”
नकली इतिहास और झूठी मर्यादाओं पर इठलाते भद्रजनों के पाखंड को धता बताती रचनात्मक उर्जस्विता।