दोस्तों,
बिता दिए हमने हजारों वर्ष
इस इंतजार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
जहरीले पंजों समेत.
फिर हम सब
एक जगह खडे होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्त शिराओं में
हजारों परमाणु क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्त कराएगा!
इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्तों में लपेटकर
ठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टांग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताजे लहू से महकती सडकों पर
नंगे पांव दौडते
सख्त चेहरों वाले सांवले बच्चे
देख सकें
कर सकें प्यार
दुश्मनों के बच्चों में
अतीत की गहनतम पीडा को भूलकर
हमने अपनी उंगलियों के किनारों पर
दुःस्वप्न की आंच को
असंख्य बार सहा है
ताजा चुभी फांस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पांव में
सुना है
दहाडती आवाजों को
किसी चीख की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्क तक का सफर तय करने में
थक कर सो गई है.
दोस्तों,
इस चीख को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है
!
(जनवरी, 1989)
सदियों का संताप - ओमप्रकाश वाल्मीकि
1:12 am
गंगा सहाय मीणा
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2 Responses to “सदियों का संताप - ओमप्रकाश वाल्मीकि”
सबसे पहले तो इस शुरुआत का स्वागत करूँगा... और गंगा सर को धन्यवाद और बधाई.....
उम्मीद है कि आगे यहाँ और भी बेहतर दलित-साहित्य पढ़ने को मिलेगा...
एक सलाह देना चाहूँगा.. ये कमेन्ट सेक्शन से वर्ड वेरिफिकेशन का झंझट हटा दें... टिप्पणी करने में असुविधा होने के कारण कई लोग बिना टिप्पणी किये ही चलते बनते हैं...
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